ગુરુવાર, 18 જૂન, 2015

कुछ भी न रहा...

अब कुछ भी न रहा दोस्त, सुनाने के लिए।
यादभी करते हम उन्हे तो भूलाने के लिए॥

एक नज़रसे उनको देखते रह गये हम तो।
जैसे सपना है वो पलकोपे सजाने के लिए॥

एक दर्द-ए-जिगरको संभालके रखा है हमने।
क्युं लोग आते रहेते है उसे मिटाने के लिए?

कुछ कमबख्तोने सारा शहरको  जला दिया।
कहाथा उन्हे मसजिदमें दीप जलाने के लिए ॥

न तो कभी अपने लिये,न कभी गैरो के लिए।
कभी जींदा रहेना पडता हमें ज़माने के लिए ॥

जलनेमें क्या मजा है दोस्त तुम क्या जानो?
शमा युंहि नहीं जलती रहेती  परवाने के लिए।

इस तरहसे रूठ गया नटवर अब तो खुदसे ही।
किसीको भेज ख़ुदा अब उसको मनाने के लिए॥

(क्षमा करना यारो, हमारी हिंदी रचनामें वर्तनी दोष होनेकी पूरी संभावना है!)

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